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सोमवार, 20 जुलाई 2009

आधुनिकता की दौड़ में पीछे रह गये सावन के झूले

आधुनिकता की दौड़ में ग्रामीण परिवेश की परम्पराएं दमतोड़ रही है। विलुप्त हो चली है। झूले की पैंगे।

सावन का महीना आते ही गांव के मोहल्लों में झूला पड़ जाते थे और सावन की मल्हारें गूंजने लगती थी। ग्रामीण युवतियां महिलाएं एक जगह देर रात तक श्रावणी गीत गाकर झूला झूलने का आनंद लेती थी। वहीं जिन नव विवाहिता वधुओं के पति दूरस्थ स्थानों पर थे उनकों इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोक कला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करते थे। झूले की पैंगों पर बुदियों भी जोशीले अंदाज में गायन शैली मात्र यादों में सिमट कर रहगई है। सामाजिक समरसता की मिसाल, जाति पाति के बंधन से मुक्त अल्हड़पन लिए बालाएं उनकी सुरीली किलकारियां भारतीय सभ्यता को अपने में समेटे हुए सांकेतिक लोकगीत जैसे किसी दिली आकांक्षा की कहानी क्यों करते थे उसका अंदाज ही निराला था।

परंतु आधुनिकता की अंधी दौड़ ने सामाजिक परिवेश ही बदल दिया है। धागे के बंधन में बंधा भाई बहनों का प्यार उन सभी बंधनों से सर्वोपरि होता था। जिनके रहते हुए भी आज उन मूल्यों को नहीं पाया जा सकता। त्योहारों का अपना अलग महत्व होता है। आपसी प्रेम सौहार्द सामाजिक मूल्यों पर नियंत्रण छोटे बड़ों का सम्मान मानवीय संवेदनाओं की स्वीकारोक्ति इन त्योहारों के माध्य से जीवंत रहते हैं। हर वर्ग का इंसान आपस से रक्षाबंधन करके सुरक्षा की सांकेतिक मांग करते थे। मुंह बोली बहने अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधकर समाज में महिलाओं की सुरक्षा का अहसास कराती थी। परंतु आज उन सभी मूल्यों का हलास हो चला है। जिनका प्राचीन सभ्यता से वास्ता था। व्यस्त जीवनचर्या हमें फुर्सत के चन्द क्षण प्रदान नहीं कर पा रही है।

किसी ने सही ही लिखा था , " दिल ढूढता है फ़िर वोही फुर्सत के रात दिन ............"

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